दशहरे की खुशियों से मैं भाव विभोर हो गई
शाम को तैयार हो कर मैं रावण दहन देखने पहुंच गयी
बड़े बड़े तीन पुतले देखे - रावण, कुंभकारां और मेघनाथ के
सोचा इनसे कुछ बात करूँ पहले इनके जलने से
क्योंकि नाराज बहुत थी मैं तीनो से
सबसे पहले पूछा मेघनाथ से
"क्यों भाई, रावण का क्यों दिया साथ गलत
लक्ष्मण को बेहोश कर क्यों बुलाई अपनी आफत?
अपनी बुद्धि का इस्तेमाल नहीं किया तुमने
रावण के कहने से पहुँच गए तुम लड़ने।
मेघनाथ बोला, " ये सोच तुम्हारी अपनी है अजी
मैंने तो अपने भाई का साथ दिया जो मेरा फ़र्ज़ था जी
धर्म ने हमे ये ही सिखाया हमेशा से
जो भूल बैठा है आज का इंसान आराम से
बन बैठा है भाई भाई का दुश्मन दौलत के पीछे
लाज नहीं आती आज मानव को, कैसे हटे पीछे
"भाई से भाई लड़े, कैसा हुआ अंधेर, समझेंगे दोनों मगर, हो जायेगी देर, ज़हर भरे सहन किए मैंने सारे तीर, खड़ा रहा मैं डटकर, , समझ भाई की पीर"
मिलेगा आज आपको ऐसा उदाहरण कहाँ
फ़िर भी मुझे ही जलाते तुम हर साल यहाँ।
सुन कर मैं तो एक दम चुप हो गयी
सही तो कहा उसने, आज दुश्मनी मानवता
पर हावी हो गयी
चुपचाप फिर मैंने कुंभकारां से पूछा "तुम तो थे समझदार
क्यों भागे आये युध् के मैदान, कर के अपनी नींद बेकार
" भाई, मैं तो वैसे ही आधी नींद में था, बड़ी मुश्किल से उठाया गया ,जो मुझे कहा गया, मैं करता गया ।
अपने मनमोहन भाई भी तो थे, जो कहा जाता था वही करते रहते थे।
और हाँ, आप तो भाई भाई मत ही कीजिए
है ही कहाँ आज भाईयों में प्यार,
जो हमारे ज़माने में था बेशुमार।
"बचे कहाँ अब शेष हैं दया, धर्म, ईमान,
भाई है जानी दुश्मन, पतथ्थर् दिल इंसान "
सुनकर बात कुंभकरण की, मुँह हो गया मेरा बंद
भागी मैं रावण की ओर, दुम दबाकर तुरंत
"क्यों भाई रावण जी, सुंदर इतनी पत्नी घर में,
क्यों फिर किया नैन मटटका लंका में
घर नारी त्याग कर, पर नारी पर नज़र क्यों डाली
कुछ सोचा न समझा, रति भी भी शर्म न आयी
"पर �
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