और मेरी तन्हाई अक्सर ये बातें करते हैं
कि शहर के हर चौराहे पर,
हर नुक्कड़ पर....
चाय की एक टपरी
औरतों के लिए भी होनी चाहिए
जहाँ खड़ी हो कर कभी अपने बच्चों के संग
कभी अपनी सहेलियों के संग
तो कभी अपने प्रेमी के संग,
खुल कर हंस सकें, ठहाके लगा सकें ।
और साझा कर पाएं
अपने हसीन रातों के किस्से
वह अठखेलियां,
वो रूठना और प्यार से मनाना
फिर अपने पति के साथ नोक झोंक
उनकी नौकरी की परेशानियां...
घर-घर के वो नित नए किस्से
बयान कर दे, और
नज़रंदाज़ कर दिए गये वो ढेरों ताने
जो सालों से वह सुनती आ रही है
चुपचाप दिल में रखे हुए।
मैं और मेरी तन्हाई अक्सर ये बातें करते हैं
कि शहर के हर चौराहे पर,
हर एक नुक्कड़ पर....
चाय की एक टपरी
औरतों के लिए भी होनी चाहिए
जहां वह सुना सके
अपने आशिकों की कहानियां
जो सुबह शाम आगे पीछे घूमते थे
दिल अपना हथेली पर ले कर
वो सुहाने दिन और शाम की मस्तियां
मां के घर में दिन भर सुस्ताना
और कॉलेज में मस्ताना
एक ऐसी चाय की टपरी, जहां
देश की इकॉनमी पर अपने विचार रख सके
चर्चा कर सके वायरल हुए जोक और मीम्स पर
और वो सब कुछ बयान कर दे जो
उनके मन की चारदीवारी में सालों से बंद है।
एक पल में सारी मायूसी लापता हो जाये।
चाय की चुस्कियों की मिठास में वो गुम हो जाये...
बेटी के मेडिकल एंट्रेंस की चिंता,
नौकरीपेशा बेटे के लिए
अपनी जैसी हूबहू बहु ढूंढने का सपना।
बंद हो जाये सारे सवाल..
इतनी देर कैसे हो गयी,
इतनी देर कहाँ रह गयी,
घर का कुछ ध्यान है या नहीं
ये कैसे कपड़े पहने हैं?
ढंग से तैयार हो कर कयों नहीं गई?
जैसे अनगिनत सवालों का गूंजना
और सबसे बड़ा सवाल
कि ''आज खाने में क्या पकेगा?''
इन सब सवालों से
कुछ पल के लिए ही सही...
मिल जाये मुक्ति
औरतें अपने सारे फ़िक्र, सारी परेशानियां
पास पड़े कूड़े के डब्बे में फेंक दें
और मुस्कुराते हुए कहें...
चल यार! कल मिलते हैं
इसी समय, अपने इसी चाय की टपरी पर...
मैं और मेरी तन्हाई अक्सर ये बातें करते हैं।
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