ज़िन्दगी से लम्हें चुरा कर
बटुए में रखती रही
फुरसत से खरचूंजी, बस यही सोचती रही
उधड़ती रही जेब, करती रही तुरपाई
फिसलती रही खुशियाँ,करती रही भरपाई।
साल पे साल बीतते रहे
ज़िम्मेदारीयां उठाती रही
कभी बेटी, कभी बीवी, कभी बहु
और फिर माँ, उफ़ तक न की
ख़ुशी ख़ुशी सभी रिश्ते
निभाती रही
इक दिन फुरसत मैंने पाई
तो सोचा .......
खुद को आज रिझाऊं
कुछ इत्राऊँ, कुछ बल खाऊँ
बरसों से जो जोड़े हुए थे
वो लम्हें आज खर्च कर आऊं।
खोला बटुआ. ये क्या, लम्हें तो न थे
मेरा दिल धक रह गया
जाने कहाँ बीत गए, मैंने तो खर्चे नहीं
जाने कहाँ चले गए
ढूंढती रही वो लम्हे
खोजती रही वो बीते पल छिन
लेकिन कहाँ मिलतें हैं यारोँ
जो बीते गया वो दिन
फिर मैंने सोचा, चलो दोस्तों को मिल आऊँ
मिलने गयी तो वो दोस्त वैसे ही न रहे, जैसे थे
किसी की कमर झुकी तो
किसी के घुटने गए थे
आँखों पे सबके लगा था चश्मा
बालों में सफेद चाँदी चढ़ी थी।
मैं हैरान थी कि ये मेरे दोस्त ऐसे तो न थे
वो खुशनुमा बचपन, वो अल्हड़ जवानी, कहाँ गयी
मैं सोचती रही। इतने में आ गयी अब मेरी बारी
मैं तो अभी जवान हूँ, सोचा चलो खुद से मिल आऊँ
आईने में देखा तो पहचान ही न पाई
थी तो मुझ जैसी कोई
पर न जाने कौन खड़ी थी।
मुँह पे झुरियाँ, आँखों पे चश्मा
दातों में भी कुछ कमी सी लग रही थी
मैं तो हरगिज़ नहीं थी, मैं तो बिल्कुल नहीं थी
ये जाने कौन खड़ी थी, ये जाने कौन खड़ी थी।